हालांकि राष्ट्रपति के पास उस स्तर की शक्तियां नहीं हैं जो प्रधानमंत्री को मुहैया हैं, फिर भी शासन के कुछ अहम पहलुओं को राष्ट्रपति नियंत्रित कर सकते हैं.
ये लेख India @75: Assessing Key Institutions of Indian Democracy. का हिस्सा है.
पिछले 75 सालों में, भारत के राष्ट्रपति कभी-कभार ही विवादों में फंसे हैं. हाल ही में निर्वाचित द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपतित्व काल में भी विवादों के आसार बहुत कम हैं, लेकिन उनके उल्लेखनीय रिकॉर्ड से ऐसा लगता है कि इस पद पर उनके पांच साल तक रहने के दौरान मंत्रियों के साथ असहमतियां उभर सकने की थोड़ी संभावना है.
राष्ट्रपति की भूमिका
राष्ट्रपति राष्ट्राध्यक्ष के बतौर कार्य करते हैं और भारतीय सरकारों की औपचारिक कार्रवाइयों को आधिकारिक स्वीकृति प्रदान करते हैं. हालांकि उनके पास उस स्तर की शक्तियां नहीं हैं जो प्रधानमंत्री को उपलब्ध हैं, फिर भी वे शासन के कुछ पहलुओं को नियंत्रित कर सकते हैं. संविधान के मुताबिक़, राष्ट्रपति को मंत्रीय परामर्श पर काम करना होता है. उनके पास मंत्रियों को सलाह देने की शक्ति है और वह किसी विधेयक (जो धन विधेयक न हो) को पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं. हालांकि, अगर विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए दोबारा भेजा जाता है, तो वह मंज़ूरी देने को बाध्य हैं.
राष्ट्रपति राष्ट्राध्यक्ष के बतौर कार्य करते हैं और भारतीय सरकारों की औपचारिक कार्रवाइयों को आधिकारिक स्वीकृति प्रदान करते हैं. हालांकि उनके पास उस स्तर की शक्तियां नहीं हैं जो प्रधानमंत्री को उपलब्ध हैं, फिर भी वे शासन के कुछ पहलुओं को नियंत्रित कर सकते हैं.
हालांकि, राष्ट्रपति कुछ मौक़ों पर मंत्रियों की सलाह पर काम नहीं करते (या कम-से-कम नहीं करना चाहिए). पहला, राष्ट्रीय चुनाव के बाद उन्हें ही यह तय करना चाहिए कि सरकार बनाने के लिए किसे न्योता देना चाहिए. अगर किसी पार्टी या गठबंधन के पास स्पष्ट बहुमत नहीं है, तो यह संभव है कि राष्ट्रपति का निर्णय व्यापक रूप से स्वीकार न किया जाए. दूसरा, जब सत्तारूढ़ दलों के पास स्पष्ट बहुमत न रह गया हो, तो राष्ट्रपति उन्हें लोकसभा में शक्ति परीक्षण के लिए कह सकते हैं, या वे किसी नये नेता को सरकार बनाने के लिए निमंत्रित कर सकते हैं. ये फैसले अपरिहार्य रूप से विवादों को जन्म देते हैं. तीसरा, अगर कोई प्रधानमंत्री तुरंत चुनाव सुनिश्चित करने के लिए संसद को उसका कार्यकाल ख़त्म होने से पहले ही भंग करने की सलाह राष्ट्रपति को देता है, तो अनुरोध बहुतों को बेजा लगने पर भी, राष्ट्रपति इससे इनकार कर (जो अभी तक भारत में नहीं हुआ है) या इसे स्वीकार कर विवाद में पड़ सकता है.
विवादास्पद अतीत
मंत्रियों के साथ राष्ट्रपति की अंत:क्रियाएं सत्तारूढ़ दलों और गठबंधनों की संसद में शक्ति से प्रभावित होती हैं. 1950 से, ज़्यादातर समय, प्रधानमंत्रियों के पास ठोस बहुमत वाला समर्थन रहा है. यह बात 1989 तक सही थी जब कांग्रेस पार्टी सबसे ताक़तवर राजनीतिक शक्ति थी, और 2014 के बाद, जब लोकसभा में बागडोर पूरी मज़बूती से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हाथों में थी. यह बात 2004 और 2014 के बीच भी काफ़ी हद तक सही थी जब कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों के पास बहुमत वाला समर्थन था. उपरोक्त कालखंडों में, राष्ट्रपतियों ने प्रधानमंत्रियों के फ़ैसलों को अमूमन स्वीकार किया – हालांकि कुछ अपवाद भी रहे, जिन्हें हम आगे देखेंगे.
लेकिन 1989 और 2004 के बीच – और उस थोड़े समय के दौरान भी जब जनता सरकार 1979 में गिर गयी – किसी दल या गठबंधन की संसद में दबदबे वाली स्थिति नहीं थी. इसने यह संभावना पैदा की कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्रियों और बड़े दलों के साथ विवादास्पद असहमतियों में फंस सकें, भले ही उन्होंने इससे बचने की कोशिश की हो.
ज़्यादातर राष्ट्रपतियों ने ख़ुद को संयमित रखा, लेकिन कुछ अन्य ने तुलनात्मक रूप से अधिक अग्रसक्रियता (प्रोऐक्टिवनेस) दिखायी. इनमें सबसे उल्लेखनीय के.आर. नारायणन (1997-2002 तक राष्ट्रपति) हैं. उन्होंने 1998 में आई.के. गुजराल सरकार से उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के अनुरोध पर पुनर्विचार करने को कहकर विवाद खड़ा कर दिया.
उन अवधियों के दौरान, राष्ट्रपति की स्वतंत्र कार्रवाइयों ने बड़ा विवाद केवल एक बार 1979 में पैदा किया. जब गुटबाज़ी की लड़ाइयां सत्तारूढ़ जनता पार्टी को अस्थिर कर रही थीं, राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने चरण सिंह को सरकार बनाने के लिए बुलाकर (जबकि दूसरे नेता ज़्यादा वाजिब उम्मीदवार लग रहे थे) भारी आलोचना को न्योता दिया. राष्ट्रपति रेड्डी ने संसद भंग करने के चरण सिंह के अनुरोध को मानकर आक्रोश और बढ़ा दिया. चरण सिंह यह अनुरोध करने के अधिकारी नहीं लग रहे थे क्योंकि वह लोकसभा में बहुमत जुटाने में अक्षम थे.
इससे कम गंभीर विवाद 1989 और 2004 के बीच की अवधि में सामने आये जब राष्ट्रपतियों के पास ज़्यादा अधिकारपूर्वक काम करने का मौक़ा था. ज़्यादातर राष्ट्रपतियों ने ख़ुद को संयमित रखा, लेकिन कुछ अन्य ने तुलनात्मक रूप से अधिक अग्रसक्रियता (प्रोऐक्टिवनेस) दिखायी. इनमें सबसे उल्लेखनीय के.आर. नारायणन (1997-2002 तक राष्ट्रपति) हैं. उन्होंने 1998 में आई.के. गुजराल सरकार से उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के अनुरोध पर पुनर्विचार करने को कहकर विवाद खड़ा कर दिया. उनके पास इस निर्णय पर सवाल उठाने का क़ानूनी अधिकार था, और गुजराल सरकार ने प्रस्ताव को वापस ले लिया. अंशत: ऐसा इसलिए हुआ कि उस सरकार की सत्ता पर पकड़ बहुत कमज़ोर थी, और अंशत: इसलिए कि सरकार द्वारा राष्ट्रपति शासन के लगातार दुरुपयोग के चलते व्यापक असंतोष था.
नारायणन ने 1998 के राष्ट्रीय चुनाव के बाद भी अपने अधिकार दिखाना जारी रखा, जब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार ने फिर बिना मज़बूत बहुमत के सत्ता संभाली. राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री के साथ स्वाधीनता दिवस के एक भाषण की सामग्री को स्वीकृति देने से मना कर दिया. यह भाषण परंपरा के बतौर था और क़ानूनन आवश्यक नहीं था. इसके बाद 1999 में, उन्होंने वाजपेयी से लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए कहा. ज़्यादातर अन्य राष्ट्रपति सावधानी बरतते हुए ऐसी कार्रवाइयों में संलिप्त नहीं हुए हैं, हालांकि, दया याचिकाओं को लेकर कई राष्ट्रपतियों के समय असहमतियां थोड़ा चुपचाप ढंग से सामने आयी हैं.
राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के बीच विवाद तब भी उभरे हैं जब सत्तारूढ़ दलों या गठबंधनों के पास भरोसेमंद संसदीय बहुमत रहा है. राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद (1952-1962) ने तीन बार नेहरू पर हावी होने की कोशिश की. पहले दो मौक़ों पर, मामले ने सीमित रूप से जनता का ध्यान आकर्षित किया और नेहरू भारी पड़े, हालांकि उन्हें इस्तीफ़े की धमकी देनी पड़ी थी.
राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के बीच विवाद तब भी उभरे हैं जब सत्तारूढ़ दलों या गठबंधनों के पास भरोसेमंद संसदीय बहुमत रहा है. राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद (1952-1962) ने तीन बार नेहरू पर हावी होने की कोशिश की. पहले दो मौक़ों पर, मामले ने सीमित रूप से जनता का ध्यान आकर्षित किया और नेहरू भारी पड़े, हालांकि उन्हें इस्तीफ़े की धमकी देनी पड़ी थी. तीसरे मौक़े पर, प्रसाद ने नेहरू को खुले रूप में चुनौती दी. उन्हें तीखे ढंग से झिड़क दिया गया और नेहरू ने मामले को सुप्रीम कोर्ट भेजने की धमकी दी. यह एक ऐसी कार्रवाई थी जिसने प्रधानमंत्रियों की प्रधानता मज़बूती से स्थापित की.
इसके बाद 1980 के दशक के उत्तरार्ध में, संसद में चार-पांचवें (4/5) का बहुमत रखने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (1982-1987) के बीच व्यक्तिगत दरार सामने आयी. सिंह ने सरकार द्वारा पारित डाक विधेयक को नामंज़ूर कर दिया. राष्ट्रपति जैल सिंह ने महसूस किया कि केंद्रीय और राज्य सरकारों को डाक में किसी भी ऐसी वस्तु, जो राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचाने वाली मानी जाती हो, को बीच में ही रोकने, जांचने, ज़ब्त करने या नष्ट करने का अधिकार देने वाला यह विधेयक नागरिकों की स्वतंत्रता को प्रभावित कर रहा है.
जैल सिंह ने कुछ नया करने का प्रयास किया. उन्होंने विधेयक को मंत्रियों को लौटाये बिना उस पर अपनी स्वीकृति को रोके रखा. इसने प्रधानमंत्री को विधेयक को दोबारा भेजने का वह मौक़ा नहीं दिया, जिसने राष्ट्रपति को स्वीकृति देने के लिए बाध्य किया होता. नये ढंग की इस युक्ति से – जिसे अक्सर ‘पॉकेट वीटो’ कहा जाता है – यह विधेयक ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. यह गंभीर विवाद पैदा कर सकता था, लेकिन चूंकि यह निष्क्रियता का मामला था, इसलिए जनता का बहुत सीमित ध्यान इस ओर गया. 1989 का चुनाव एक गैर-कांग्रेस सरकार को सत्ता में लेकर आया. राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमण (1987-1992), जो डाक विधेयक के पक्ष में नहीं थे, ने भी ‘पॉकेट वीटो’ का इस्तेमाल किया और विधेयक एक ख़ामोश मौत मर गया.
द्रौपदी मुर्मू एक ‘रबर स्टैंप’ राज्यपाल नहीं थीं. इससे यह संभावना प्रतीत होती है – हालांकि बहुत कम – कि बतौर राष्ट्रपति वह ऐसे क़दम उठा सकती हैं. उन्हें एक स्वतंत्र बुद्धि वाला दृढ़संकल्पी व्यक्ति कहा जाता है, जो सारे ब्योरों पर गहरी नज़र डालती हैं.
अगर मंत्रिपरिषद ने अपनी सलाह दोहरायी होती और किसी राष्ट्रपति ने विधेयक को स्वीकृति देने से इनकार किया होता, तो एक गंभीर संकट खड़ा होता. यह कभी नहीं हुआ (हालांकि नेहरू के साथ राजेंद्र प्रसाद का विवाद इसके क़रीब तक आ गया था) और ऐसा होने की संभावना भी बहुत कम है. अपनी सेवानिवृत्ति के बाद एक इंटरव्यू में, वेंकटरमण ने इसकी संभावना को एक बार फिर सामने रखा. उन्होंने कहा कि अगर किसी राष्ट्रपति को संविधान के ख़िलाफ़ काम करने को कहा जाए, तो मंत्रियों की दोहरायी गयी सलाह राष्ट्रपति पर बाध्यकारी नहीं भी हो सकती है. यहीं पर वो राजनीतिक बारूद मौजूद है.
राज्यपाल के तौर पर द्रौपदी मुर्मू
राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के बीच अतीत के विवादों को अभी याद करना समीचीन होगा, क्योंकि 2017 में झारखंड की राज्यपाल (2017-2021) के बतौर, द्रौपदी मुर्मू ने भाजपा-नीत राज्य सरकार द्वारा अपने समक्ष लाये गये विधेयक पर आपत्ति की थी. विधेयक ने दो मौजूदा क़ानूनों को संशोधित किया था, और उनकी नज़र में, यह अनुसूचित जनजातियों की ज़मीन को वाणिज्यिक उपयोग के लिए उपलब्ध कराने के ज़रिये अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को कम करता था. उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह पूछते हुए विधेयक को मंत्रियों के पास वापस भेज दिया कि यह आदिवासी कल्याण के लिए कैसे फ़ायदेमंद हो सकता है. इसने भाजपा द्वारा चलायी जा रही झारखंड सरकार को शर्मिंदगी की स्थिति में डाल दिया था, ख़ासकर इसलिए कि यह एक आदिवासी बहुल राज्य है. अत: विधेयक को वापस ले लिया गया.
इस मिसाल के हिसाब से देखें तो, द्रौपदी मुर्मू एक ‘रबर स्टैंप’ राज्यपाल नहीं थीं. इससे यह संभावना प्रतीत होती है – हालांकि बहुत कम – कि बतौर राष्ट्रपति वह ऐसे क़दम उठा सकती हैं. उन्हें एक स्वतंत्र बुद्धि वाला दृढ़संकल्पी व्यक्ति कहा जाता है, जो सारे ब्योरों पर गहरी नज़र डालती हैं. लेकिन, वह एक निष्ठावान भाजपा नेता भी रही हैं जिन्होंने आदिवासी समर्थन जुटाने के पार्टी के प्रयासों में पार्टी के भीतर काफ़ी ताक़त लगायी है. लिहाज़ा, शायद इसकी संभावना बेहद कम है कि केंद्रीय मंत्रियों के साथ विवाद खड़े होंगे. हो सकता है कि उन्होंने बहुत से आदिवासियों समेत वनवासियों को नुक़सान पहुंचाने वाले, वन संरक्षण नियमों में संशोधन के सरकार के बिल्कुल हालिया निर्णयों पर आपत्ति जतायी होती. लेकिन, शायद यह एक सोचा-समझा क़दम था, जिसे उनके राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होने से ठीक पहले उठाया गया.
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ये लेखक के निजी विचार हैं.
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